भारत विरोधी राष्ट्रीयता और उग्रराष्ट्रवाद का ही परिणाम है संसद विघटन : अजय कुमार झा

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नेपाली संसद को भंग करने की राष्ट्रपति से सिफारिश के बाद प्रधानमंत्री केपी ओली की सरकार ने राजधानी काठमांडू लगायत देशभर में संभावित नारे जुलुस तथा प्रदर्शन को ध्यान में रखते हुए सुरक्षा व्यवस्था कड़ी कर दी है। जिला अधिकारी और सुरक्षा अधिकारी को विशेष सतर्कता अपनाने के लिए कहा गया है। देश में राजा समर्थक, राप्रपा, माओवादी, जसपा, जनमत, नेका, नेकपा लगायत के अनेकों पार्टी द्वारा किए जा रहे विरोध प्रदर्शन के जटिलता और भयावहता के कारण ऐसा कदम उठाया गया है।
   नेपाल में संसद भंग करने की सिफारिश राष्ट्रपति द्वारा सहज और अविलंब स्वीकार किए जाने के बाद के घटनाक्रम पर भारत-चीन लगायत विश्व की नजर बनी हुई है। नेपाल की राजनीति पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि संसद भंग करने का ओली सरकार का फैसला असंवैधानिक है। इससे नेपाल में सियासी संकट बढ़ेगा। आम नागरिक जानते हैं कि ओली अंदरूनी सियासत में लगातार कमजोर पड़ रहें हैं। उनकी पकड़ पार्टी में भी ढीली पड़ गई है। संवैधानिक परिषद के मसले पर बढ़े टकराव के कारण प्रचंड लगायत अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से उनकी सियासी दूरी बढ़ गई है। चारो ओर से आलोचना का शिकार बने ओली सरकार पर पार्टी के भीतर से इस्तीफे जबदस्त दबाव था। पार्टी के भीतर के आंतरिक टकराव और खिचातानी मे ही ओली सरकार का तीन वर्ष बीत गया, भ्रष्टाचार खुलेआम होने और अनियंत्रित होने के कारण मानसिक रूप से विचलन होना स्वाभाविक था। इन्हीं आक्रोश और बदले कि भावना के कारण ओली संसद भंग करने के निर्णायक निर्णय पर पहुंचे हैं। यह आंशिक रूप में लोकतांत्रिक कदम होते हुए भी व्यक्तिगत अहंकार को पोषण और सामूहिक अधिकार को दमन करता है। अतः संसद से सरकार बनने की प्रबल संभावना होते हुए भी संसदीय अधिकार को दमन करने वाली इस निर्णय को  अलोकतांत्रिक निर्णय कह सकते हैं।
   संविधान विशेषज्ञों के मुताबिक नेपाल के नए संविधान में सदन भंग करने को लेकर कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है. प्रधानमंत्री का कदम असंवैधानिक है और इसे अदालत में चुनौती दी जा सकती है। विशेषज्ञ मानते हैं कि बहुमत हासिल करने के बाद प्रधानमंत्री द्वारा संसद भंग करने का प्रावधान नहीं है। जबतक संसद द्वारा सरकार गठन की संभावना है तब तक सदन को भंग नहीं किया जाना चाहिए।
   वर्तमान परिवेश में नेपाल के  राजनीतिक रुझान चीन के ज्यादा निकट देखा जाता है, जो भारत की सुरक्षा चिंताओं को बढ़ाता है।
जबकि भारत नेपाल का परंपरागत विश्वसनीय मित्र राष्ट्र हैं। भारत और नेपाल की सांस्कृतिक जड़ें काफी गहरी हैं, जिसे ओली सरकार द्वारा सीमा अवरोध उत्पन्न कर उखाड़ने का प्रयास किया जा रहा है। वैसे इसका विरोध सीमावर्ती नागरिक और मधेस समर्थक पार्टी के नेता कार्यकर्ता वाहेक किसीने नहीं किया है। इससे नेपाल के आम जनमानस में भारत के प्रति उत्पन्न किए गए मनोवैज्ञानिक घृणा के भय से भयाक्रांत नेपाली नेता और पार्टी के भाव को भी उजागर करता है।
ओली के द्वारा संप्रेषित भारत विरोधी राष्ट्रवाद के चक्की ने कांग्रेस और रा प्र पा को विगत के चुनाव में बुरी तरह मसल के रख दिया था। उन नेताओं में आज भी इसका भय समाहित है।
वर्तमान में संसद विघटन के पिछे छुपे शक्ति का रहस्य भी यही है। भारत विरोधी राष्ट्रीयता और उग्रराष्ट्रवाद के आंधी में अनेकों निर्मला हत्या कांड, भ्रष्टाचार के हजारों कांड, और लोकतांत्रिक भावनाओं को बड़ी सहजता से मसलकर उड़ाया जा सकता है, जिसका सूत्र ओली को अच्छे से पता है। आम नागरिक को राजनीतिक दाव पेंच में फंसाकर गरीबी, बेरोजगारी और दीनहीन अवस्था में रखने के पीछे यही कारण है, कि जब आवश्यकता पड़े उसे प्रलोभन में फंसाकर प्रयोग किया जा सके।
‘पदिय अहंकार और लालच के आगे न कोई सिद्धान्त होता है और न राष्ट्रीयता ही’ इसका ज्वलंत उदाहरण ओली के संसद विघटन प्रकरण से लिया जा सकता है। इससे पहले कांग्रेस के  नेता गिरिजा प्रसाद कोइराला ने ऐसे पुण्य कर्मो का आरंभ कर ख्याति कमा चुके है। इससे क्या प्रमाणित होता है कि नेपाल में सत्तावाद के अलावा अन्य कोई सिद्धान्त नहीं है। अर्थात सबके सब राजाबादी है। कोई आजीवन  पार्टी अध्यक्ष रहने के लिए नियम कानून तोड़ रहा है, तो कोई कांग्रेस आई कि तरह पारिवारिक वर्चस्व के आगे जनता को तुक्ष्छ समझ रहा है। कोई जातीय सत्ता स्थापित करने के अहंकार से भावित है तो कोई राजा के छत्र छाया में राणा बाद को स्थापित कर आम नागरिक को गुलाम बनाने में व्यस्त है। यहां हर कोई दूसरो को गुलाम बनाने और खुदको राजा बनाने में लगा हुआ है। अतः इतने शकुनियों और कंशो के बीच हम अपने को कैसे सुरक्षित अनुभव कर सकते हैं? यह एक यक्ष प्रश्न है! आज नेपाली जनता पूर्णतः निरीह और अभिभावक विहीन अवस्था में खुद को पा रही है। 2007 साल के सशस्त्र आंदोलन में आम जनता को बलिदान देना पड़ा, माओवादी जनयुद्ध में 25 हजार आम नागरिकों का जीवन बर्बाद हुआ। लेकिन हम आम लोग क्या पाएं! मधेसी, थारू, जनजाति, किराती, नेबार, लामा, शेर्पा ने तो हजारों बलिदानी के बावजूद नई संविधान में खुदको सुरक्षित तक नहीं कर पाए। वाहुन क्षेत्री के अलावा इस संविधान का सब ने विरोध ही किया था, लेकिन हुआ क्या! रेशम चौधरी संसद होते हुए जेल काट रहे हैं, जबकी अदालत से दण्डित लोग एसोआराम की जिंदगी जी रहे हैं, क्योंकि संविधान और न्याय कानून व्यवस्था किसी खास जाती और व्यक्ति से निर्देशित है। ज स पा के लाख चिल्लाने पर भी सरकार ने रेशम चौधरी के हथकड़ी को नहीं खोला, जबकि प्रचण्ड के एक हुंकार से पूरी व्यवस्था कम्पायमान हो जाती है। इससे यही तथ्य निकलता है कि नेपाल में संविधान और कानून सरकार के आगे नतमस्तक है, जबकि लोकतंत्र में संविधान सर्वोपरी होता है और व्यवस्था किसी भी व्यक्ति से ऊपर होता है, चाहे वह राष्ट्रपति, प्रधानन्त्री और प्रधान न्यायाधीश ही क्यों न हो। विडंबना देखिए! जब मधेस मूल के राष्ट्रपति थे तब एक दो कौड़ी के नेता भी चेतावनी भरा अमर्यादित वक्तव्य संप्रेषित कर देता है, लेकिन आज उनके जुबान बंद है।इसिको जातीय दंभ और राजबादी सोच से ग्रसित होने का संज्ञा दिया है।
आज सोसल मीडिया के सक्रियता के कारण हर कोई इस तथ्य और षड़यंत्र से वाकिफ है। हर किसी के दिल में इन सामंतियों के प्रति घृणा है, बदले की भावना पनप चुका है, हर कोई अवसर की तलाश में है, ऐसी परिस्थिति में समाज का कल्याण कदापि संभव नहीं। सिंह दरबार में मंत्री लूट रहे हैं तो स्याल दरबार जंत्री लूट रहा है। देश को मंत्री और गांव को अध्यक्ष खोखला करने पर तुला है। जनता हर हाल में दीनता को प्राप्त हो रहा है। सुफल उन्मुक्ति का कोई रास्ता नहीं दिख रहा। आकुलता और व्याकुलता से त्रस्त नागरिक किसी दिव्य तारणहार की कल्पना तो कर रही है लेकिन घने अंधकार में, जहां कदम कदम पर ठोकरें ही ठोकरें मिल रहे हैं। विदेशी हस्तक्षेप सर से पांच तक जकड़े जा रहा है। भ्रष्टाचारी संस्कार के कारण वैदेशिक ऋण में जनता डूबती जा रही है। व्यक्तिगत लाभ के लिए देश के धर्म, संस्कृति और भूगोल को गिरवी रखा जा रहा है। समग्र आधिकारिक संयंत्र को क्षणिक लाभ के लिए दूषित किया जा रहा है। आखिर जनता करे तो क्या करे? वह जाय तो जाय कहां? क्या सड़क पर चिल्लाने से समस्या का समधान हो जाएगा! क्या सरकार बदलने से भ्रष्टाचार मिट जाएगा? क्या सिद्धान्त के नाम बदलने से व्यक्ति के संस्कार मिट जाएंगे? विचार विमर्श हेतु निवेदन!  क्रमशः……….। साभार हिमालिनी
                                      अजय कुमार झा

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