कपिलबस्तु के कृष्णनगर में छठ पूजा की रौनक

न्युज ब्रेक राष्ट्रीय

१४ नवम्बर (कार्तिक २८) ।
सतेन्द्र कुमार मिश्र/कपिलबस्तु ।

छठ पूजा के चौथे और आखिरी दिन कृष्णनगर की श्रद्धालू महिलाएं उगते हुए सूर्य देव को अघ्र्य देकर छठ पुजा को सम्पन्न किया है ।
कपिलबस्तु जिले के कृष्णनगर १ सेमरा में स्थित तालाब में कई दशकों से कृष्णनगर बजार क्षेत्र तथा आस पास की महिलाएं छठ पूजा करने के लिए ईकठ्ठा होती हैं । कल शाम को कृष्णनगर नगरपालिका की महिलाएं अस्त हो रहे सूर्य को अघ्र्य देने के लिए इसी स्थान पर एकत्रित हुयी थी । जहां पुनः महिलाएं एकत्रित होकर उग रहे सूरज को अघ्र्य देकर, प्रसाद ग्रहण कर छठ पूजा सम्पन्न की है । छठ पूजा के दौरान सेमरा स्थित तालाब में लोगों का जमावडा लगा हुआ था ।


जानिए, कैसे मनाते हैं छठ ?
छठ पूजा चार दिवसीय उत्सव है । इसकी शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा समाप्ति कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है । इस दौरान व्रतधारी लगातार ३६ घंटे का व्रत रखते हैं । इस दौरान वे पानी भी ग्रहण नहीं करते ।
पहला दिन
पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी “नहाय—खाय” के रूप में मनाया जाता है । सबसे पहले घर की सफाई कर उसे पवित्र किया जाता है । इसके पश्चात छठव्रती स्नान कर पवित्र तरीके से बने शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत की शुरुआत करते हैं । घर के सभी सदस्य व्रति के भोजनोपरांत ही भोजन ग्रहण करते हैं । भोजन के रूप में कद्दू दाल और चावल ग्रहण किया जाता है । यह दाल चने की होती है ।
दूसरा दिन
दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी को व्रतधारी दिनभर का उपवास रखने के बाद शाम को भोजन करते हैं । इसे “खरना” कहा जाता है । खरना का प्रसाद लेने के लिए आस पास के सभी लोगों को निमंत्रित किया जाता है । प्रसाद के रूप में गन्ने के रस में बने हुए चावल की खीर के साथ दूध, चावल का पिठा और घी चुपडी रोटी बनाई जाती है । इसमें नमक या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है । इस दौरान पूरे घर की स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है ।


तीसरा दिन
तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ का प्रसाद बनाया जाता है । प्रसाद के रूप में ठेकुआ, जिसे कुछ क्षेत्रों में टिकरी भी कहते हैं, के अलावा चावल के लड्डू, जिसे लडुआ भी कहा जाता है, बनाते हैं । इसके अलावा चढावा के रूप में लाया गया साँचा और फल भी छठ प्रसाद के रूप में शामिल होता है ।
शाम को पूरी तैयारी और व्यवस्था कर बाँस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रति के साथ परिवार तथा पडोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पडते हैं । सभी छठव्रति एक नियत तालाब या नदी किनारे इकठठ होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं । सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती हैस इस दौरान कुछ घंटे के लिए मेले जैसा दृश्य बन जाता है ।
चौथा दिन
चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है । व्रति वहीं पुनः इकठठ होते हैं जहाँ उन्होंने पूर्व संध्या को अर्घ्य दिया था । पुनः पिछले शाम की प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती है । सभी व्रति तथा श्रद्धालु घर वापस आते हैं, व्रति घर वापस आकर गाँव के पीपल के पेड जिसको ब्रह्म बाबा कहते हैं वहाँ जाकर पूजा करते हैं । पूजा के पश्चात् व्रति कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोडा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं जिसे पारण या परना कहते हैं ।

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